दयाशंकर शुक्ल सागर

Thursday, February 25, 2016

मुश्किल वक्त

देखिए कितना मुश्किल वक्त है। अपनी बेटियों की तालीम के लिए अपनी तनख्वाह से कुछ पैसे बचाना चाहता हूं। लेकिन तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा इनकम टैक्स में कट जाता है। इस टैक्स का कुछ हिस्सा जेएनयू के उन लड़कों की तालीम पर भी खर्च होता है जो उस दिन कैम्पस में भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी के नारे लगा रहे थे। वे उस इंसान की बरसी मनाने के लिए जमा हुए थे जिसने फांसी से पहले खुलेआम टीवी इंटरव्यू पर कबूल किया था कि वह हिन्दुस्तान से बेतरह नफरत करने वाले गाजी बाबा का चेला है और सिर्फ पैसे के लिए आतंकी बन गया। उसने लोकतंत्र के प्रतीक हमारी संसद पर हमला किया। इसको बचाने में हमारे आठ जवान शहीद हुए। इस देश की सबसे बड़ी अदालत ने उस अफजल गुरू को फांसी की सजा सुनाई थी। तो ऐसे नारे लगाने वालों के प्रति नाराजगी स्वभाविक थी। आप इसे इंसानी कमजोरी भी कह सकते हैं। मेरा सिर्फ ये मानना है कि जेएनयू या किसी भी कैम्पस में ये पढ़ने आए हैं पढ़ें। देश की ज्वलंत समस्याओं पर मंथन करें। वाद विवाद करें। लेकिन ऐसा कुछ न करें जिससे देश के किसी आम नागरिक की भावना को ठेस पहुंचे। तो देश के एक नागरिक की हैसियत से यह सिर्फ एक स्टैंड था। ऐसे लोगों साथ देकर इनका मनोबल नहीं बढ़ाना चाहिए। लेकिन मेरे इस एक विचार ने जैसे मुझे गुनाहगार बना दिया। बुनियादपरस्त, दक्षिणपंथी, कट्टर हिन्दूवादी, ब्राह्मणवादी जैसे वे तमाम जुमले मेरे नाम के साथ जुड़ गए जिसका मैं ता जिन्दगी विरोध करता रहा हूं। मुझ पर आरोप लगे कि मैं संघ परिवार के जहरीले प्रचार का शिकार हो गया। मेरे दोस्त आधी रात को फोन करके मुझे बताने लगे कि मैं आरएसएस का एजेंट बन गया हूं। साहेब से कोई पुरस्कार पाने की लालसा में मेरा रुख बदल गया है। ये मासूम लोग समझ नहीं पा रहे कि जो संघ परिवार चालीस साल में मेरा ह्रदय परिवर्तन नहीं कर पाया वह जेएनयू के एक प्रकरण पर मुझे अपना गुलाम बना लेगा। पर मुझे कोई हैरत नहीं हुई क्योंकि कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों की जहनियत से मैं बहुत खूब वाकिफ हूं। वे खुद को बहुत उदार और विराट सोच का प्रोजेक्ट करते हैं लेकिन उनकी सोच निहायत तुच्छ होती है। उन्हें लगता है कि वे हमेशा सही होते हैं। लेकिन मैंने उन्हें हमेशा पांखड से घिरा पाया। वे मजदूरों के हितों की बात करते हैं और अपने बंगलों में बाल मजदूरों से काम कराते हैं। पूंजीवाद का विरोध करते हैं और खुद लम्बी कारों में घूमते हैं। ईश्वर से नफरत करते हैं और छुप कर मंदिरों में मूर्ति के आगे हाथ फैलाते हैं और जुमे की नमाज पढ़ते हैं। पंड़त कामरेड जनेऊ पहनते हैं और मियां कामरेड पांच वक्त की नमाज पढ़ते हैं रोजा रखते हैं। ये पाखंड है जिससे मैं नफरत करता हूं। इनके अलावा कुछ दोस्त, शुभचिन्तक या आप जो चाहे उन्हें कहें। वे भी पीछे पड़ गए। तुम्हें क्या हो गया है? तुम बदल गए हो? अरे भाई आपको क्या हुआ है? जो गलत है वह आपको दिखता नहीं। आप कहते हैं ये राष्ट्रवाद नहीं है। मैं कहता हूं राष्ट्रवाद की ढाई सौ से ज्यादा परिभाषाएं हैं। तो क्या हुआ? किसी परिभाषा में देशद्रोही नारों को जायज नहीं ठहराया जा सकता। खैर इस पर मुझे आपको कोई सफाई नहीं देनी। लेकिन यह समझ लें ऐसे मुद्दों पर आप गलत तरफ खड़े होकर देश को असली फासीवाद की तरफ ले जा रहे हैं। हालांकि मैं तब भी उसके विरोध में खड़ा हूंगा। पर तब आप मुझसे मत कहिएगा कि मैंने आपको चेताया नहीं था।

No comments: