दयाशंकर शुक्ल सागर

Saturday, March 20, 2021

नीड़ का निर्माण फिर फिर




मैंने देखा है दुनिया में हर बड़े काम का क्रेडिट पुरुष ले उड़ते हैं। जबकि हर पुरुष के परिश्रम के पीछे एक स्‍त्री का श्रम और उसकी साधना छुपी होती है। एक पुरानी और मशहूर कहावत है दुनिया के हर सफल आदमी के पीछे स्‍त्री होती है लेकिन हैरत की बात यह कि वह मुझे स्‍त्री कभी दिखती नहीं। वह कभी सामने नहीं आ पाती। पति-पत्नी का केवल एक साथ रहना दांपत्य नहीं। दांपत्य के बहुत गहरे अर्थ हैं। यह वह शब्द है जो स्त्री और पुरुष दोनों को एक बंधन में बांधकर एक करता है। दाम्पत्य प्रेम का सटीक अर्थ है-दूसरे की मौजूदगी का आनंद लेना। और परस्पर सम्मान इसका आधार है। सफल दांपत्य जीवन के सात सूत्र हैं-संयम, संतुष्टि, संतान, संवेदनशीलता, संबल, संकल्प और सर्म्पण। ऐसा मैंने शास्‍त्रों में पढ़ा है। आज की प्रेरणा दायक कहानी इसी दांपत्य जीवन पर। 



जीवन के तीसरे पड़ाव में आकर एक पुरुष शहरी जिन्दगी छोड़कर ग्रामीण जीवन जीने का सपना बुनता है कि दूर गांव में एक हमारा छोटा-सा घर होगा। घर के सामने एक बड़ा-सा बगीचा होगा। जिनके फूलों पर हर वक्त तितलियां मंडराती होंगी। जैविक खेती से दूर दूर तक लहलहाते खेत होंगे। और वह अपनी पत्नी को इसके लिए प्रेरित करता है। और ये कामना एक ऐसी पत्नी से जिसने कभी खेत नहीं देखे। जो 35 साल अपने वैवाहिक जीवन में अपने ससुराल के पैतृक गांव में केवल दो बार आई हो। जिसका जीवन आसाम के चाय बगानों की ठेठ अंग्रेजी संस्कारों में बीता हो। फिर शादी के बाद इलाहाबाद आने पर रसूखदार पति के साथ एक लम्बा सामाजिक जीवन। बड़ी महफिलों, जलसों, क्लब की पार्टियों और तमाम सामाजिक आयोजनों में जाना। सुख सुविधाएं के साथ प्रशंसा, पद, प्रतिष्ठा और परिचयों का एक विशाल दायर छोड़ कर एक गांव में आकर बसने के फैसले में पति का साथ देना। और गांव भी क्या दूर दूर तक फैले सूखे खेत और आम के कुछ पेडों का झुरमुठ। जा‌हिर है ये कोई आसान फैसला नहीं था।    

मेरे एक मित्र हैं अखिलेश कुमार मिश्र बेहद संवेदनशील, विद्वान और भले मानस। आध्यात्मिक किस्म के इंसान हैं। पुलिस इंटेलीजेंस में बड़े अफसर थे। इलाहाबाद के पॉश इलाके में उनका घर है। बच्चे बड़े होकर नौकरी करने चले गए। घर काटने को दौड़ता था। सो रिटायरमेंट के बाद उन्होंने बनारस के पास अपने गांव में जीवन जीने का फैसला किया। उन्हें लगा प्रकृति के आंचल में ही वे ईश्वर के सबसे ज्यादा करीब रह सकते हैं। और यहां से शुरू होती है मिश्र दम्पति के संघर्ष की एक यात्रा। दो साल पहले उनकी पत्नी किरण मिश्रा तीसरी बार चंदौली के पास अपने ससुराल के पैतृक गांव आईं। उनके  इरादा अपने गांव में आर्गनिक फार्म हाउस बनाना था। जैविक खेती का एक ऐसा प्रयोग आसपास के इलाकों में एक मिसाल बने। उनके लिए एक उदाहरण बनना जो गांव छोड़ कर शहरों में जा बसते हैं और फिर कभी लौट के नहीं आते। जो चंद लोग रिटायरमेंट के बाद कोशिश करते भी हैं वह बीच में हार थक कर लौट जाते हैं। लेकिन मिश्र दम्पति उनमें से नहीं थे। पहले चार दिन, फिर सात ‌दिन फिर पन्द्रह दिन के लिए इलाहाबाद से गांव आना एक जरूरत बन गई। जैसे जैसे फार्महाउस का निर्माण चल रहा था, इलाहाबाद पीछे छूटता जा रहा था। जरूरत ज्यादा यहां महसूस हो रही थी। यहां की व्यवस्था देखना, हर रोज मजदूरों का हिसाब करना, कभी ईंट कम पड़ जाना कभी सीमेंट के ट्रक का फंस जाना। एक समस्या से मुक्ति मिलती तो दूसरी व तमाम समस्याएं सामने खड़ी मुस्कुराती। पूरे दो साल लगे इस घरौंदे को बनाने में। इस दरमियान वे कभी टूटते, बिखरते, कभी निराश हो जाते। फिर एक दूसरे को समझाते, सम्‍भालते, हौसला देते लेकिन उम्मीद का दामन कभी छूटने नहीं देते। किरण जी कहती हैं-इस सबके दौरान इलाहाबाद के शहरी जीवन से दूर रहने की तकलीफ लगातार मन में रहती। कभी दो दिन के इलाहाबाद वाले घर लौटती कर लगता पूरे घर को अपनी आगोश में समेट लूं। कभी-कभी चुपके से अपने पति की नजर बचाकर वे रो भी लेती थीं। लेकिन इसके साथ फार्महाउस से लगाव भी बढ़ता जा रहा था क्योंकि यहां के पत्ते को संवारने मे हमारी कोशीशें थीं। हम हर चीज को बड़ी बारीकी से चुनते। चाहे वो कोई पौधा हो या कमरे का पर्दा। चाहे हैंडपम्प लगाने की जगह चयन हो या अन्न रखने का स्टोर बनाने के लिए जगह का चुनाव। एक मोह के धागे से नीड़ का निर्माण यहां भी शुरु हो चुका था। उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। धीरे-धीरे फार्म हाउस आकार लेने लगा। वे अपने दोस्तों को फार्म हाउस की फोटो मोबाइल पर भेजतीं। किरण जी कहती हैं- 'गांव के फार्म हाउस, हरे भरे खेत, रंग बिरंगे फूल, स्वादिष्ट रसीले फल, हरी ताजी सब्जियों की तस्वीरें देखकर रश्क करते तो मैं बिना पंख के आसमानों मे उड़ने लगती हूं। न जाने दिन में कितनी बार ईश्वर को धन्यवाद देती। जिसकी कभी मैंने कल्पना नही कि ईश्वर ने मुझे उस खुशी से नवाजा।' 

सबसे मजेदार कमेंट उनके भाई का था-'अरे ये‌ क्या नौटंकी लगाकर रखी हो तुमने किरण? कभी शानदार घर की फोटो भेजती हो‌, कभी फूलों से भरे लान की, कभी खेत खलिहानों में भी उतर जाती हो, सब्जियां भी उगा लेती हो। रामोजी स्टुडियो तो नही पहुंच गई तुम? आखिर माजरा क्या है?' तब उनकी बहन ने तुरंत उन्हें विडियो काल करके फार्म हाउस का लाइव नजारा दिखाया। वह चकित और हतप्रभ रह गए। भाई बोला-'मेरे पास शब्द नहीं है कि इसकी सुन्दरता को व्यक्त कर पाऊं तुमसे। तुम दोनों ने बहुत बारीकी से यहां की प्लानिंग की है। उजाड़ जगह को जन्नत बना दिया।'

अब फार्म हाउस बन कर तैयार है। उनके दोस्त टूरिस्ट की तरह वहां घूमने आते हैं। खेतों में उनका वक्त कब कट जाता है पता ही नहीं चलता। किरण कहती हैं- 'मुझमें कितना बदलाव आ गया है, मैं खुद हैरान हूं। बारिश मुझे बहुत पसंद हैं। बे-मौसम बारिश के तो कहने ही क्या? एक एक बूंद पर मैं झूम जाती थी। पर अब ....बारिश के साथ ही सोचती हूं इस बारिश  से हमारी फसल को नुकसान तो नहीं होगा?' सब्जियों की क्यारियों मे रोज जाकर देखना कि आज कौन-सी सब्जी कितनी है? उनको तोड़ना, सबमें बांटना सूकून देता है? अचानक ही निकल आए सब्जी, आम, फल व फूलों को देखकर मैं खुशी के मारे लगभग चिल्ला पड़ती हूं। चीजों को बनाना कितना कठिन है। फिर जब वो बन जाती है तो हम सब कठिनाइयां भूल जाते हैं। सामने दिखती है एक मुकम्मल तस्वीर। लोग तो चमकदार तस्वीर में ही उत्सुक हैं। तस्वीर के पीछे की कहानी तो बस कहानी ही रह जाती है। लेकिन फिर भी दोस्तों से बहुत संबल मिलता है।' 

तो मिश्र दम्पति का ये फैसला मुश्किल था। लेकिन ऐसे ही फैसलों में जीवन में अनुभव का एक और मजबूत घेरा बनता है। सोंधी मिट्टी की खुशबुओं और गांव के साफ नीले भीगे आसमान के पीछे उम्मीद की एक किरण हमेशा छुपी रहती है। इसी उम्मीद का नाम तो जिन्दगी है। जो इतनी बुरी नहीं जितनी की हमें अक्सर महसूस होता है। 

   

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