दयाशंकर शुक्ल सागर

Monday, October 2, 2017

महात्मा गांधी ब्रह्मचर्य के प्रयोग भूमिका




‘सत्य के मुखमंडल पर

एक स्वर्णावरण चढ़ा हुआ,



प्रभु! इस आवरण को

हटाओ

ताकि मैं यथार्थ में

सत्य के दर्शन कर सकूं।

- ईशावास्य उपनिषद् से



महात्मा गांधी ने अपनी मृत्यु से ठीक एक साल पहले कहा था कि मैं शारीरिक इच्छा से मुक्त हूं या नहीं, इस बात का पता शायद मेरी मृत्यु के बाद लगे। लेकिन दुर्भाग्य है कि गांधीजी की मौत के बाद बुद्धिजीवियों ने इस प्रश्न पर चालाकी से चुप्पी साध ली। उन्हें डर था कि यह प्रश्न अगर उठाया गया तो गांधीजी की महान तसवीर खंडित होगी। गांधीवाद के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकना और दुकान चलाना कठिन हो जाएगा। इसलिए इस 'महान प्रयोग' से जुड़े तमाम सारे सवाल खामोशी से दफन कर दिए गए। सत्य और अहिंसा के अलावा महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य पर कीमती प्रयोग किए। महात्मा के सत्य और अहिंसा से जुड़े प्रयोगों पर बहुत काम हुआ लेकिन ब्रह्मचर्य के प्रयोग को इतिहास की रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।
चीन के बौद्धिक जगत में एक कहावत मशहूर है-'हर महापुरुष एक सामाजिक संकट है।' महात्मा गांधी के बारे में भी यह बात बहुत दिनों तक कही जाती रही। लेकिन हत्यारे नाथूराम गोडसे ने उनके सीने में तीन गोलियां उतार कर महात्मा गांधी के जीवन और उनके विचारों पर चलने वाली तमाम बहसों को हमेशा के लिए शांत कर दिया। महात्मा गांधी अगर अपनी स्वाभाविक मौत मरते तो निःसंदेह उनके विचारों, आदर्शों और उनके प्रयोगों पर आलोचनात्मक ढंग से टीकाएं सामने आतीं। तब हम अपने महात्मा को शायद संपूर्णता से समझ पाते और उनके बारे में अपनी कोई राय कायम करते। लेकिन भारत का धर्मभीरु समाज मृतकों को उनके सारे गुनाहों के लिए न केवल माफ कर देता है बल्कि उन पर चर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझता।
उनकी मृत्यू बाद में गांधीजी पर बहुत लिखा गया और थोड़ा बहुत उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर भी। इस संदर्भ में मैंने जितने लेख, किताबें और टिप्पणियां आदि पढ़ीं उनमें इस प्रयोग का जिक्र टुकड़ों में पाया। सब कुछ बहुत दबे ढके शब्दों में था ताकि गांधीजी का महात्मापनकहीं आहत न हो। सच तो यह है कि इन आधी - अधूरी जानकारियों ने ही गांधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों के बारे में गलतफहमी का माहौल पैदा किया।
ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर पश्चिम के विद्वानों ने काफी काम किया। आर्थर कोएलस्कर ने 1960 में दॅ लोटस एंड दॅ रैबिट लिखी। एरिक एच एरिक्सन ने 1969 में गांधीज : ट्रुथ आन द ओरिजिन्स आफ मिलीटेंट नान – वायलेंस लिखी। वेद मेहता ने 1976 में महात्मा गांधी एंड हिज अपोसेल्नाम से एक बेहतरीन किताब लिखी। लेकिन अंग्रेजी में लिखी ये किताबें आम हिन्दी पाठकों की समझ और पहुंच से बहुत दूर थीं। पर इन किताबों और लेखों ने यह प्रेरणा जरूर दी कि इस गंभीर विषय पर एक लंबे और सार्थक काम की जरूरत है।
महात्मा के ब्रह्मचर्य प्रयोग पर काम करते वक्त कई मित्रों ने पूछा कि मैं कीचड़ में कंकड़ डालने का काम क्यों कर रहा हूं? जाहिर था कि वे लोग मेरे इस काम से प्रसन्न नहीं थे। मजे की बात यह थी कि इनमें से अधिकांश लोग गांधीजी के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। न उन लोगों ने कभी गांधीजी के बारे में पाठ्य पुस्तकों में दर्ज बातों के अलावा कुछ आगे पढ़ने की जहमत की थी। लेकिन फिर भी वह गांधीजी के खिलाफ कुछ भी पढ़ने - सुनने को राजी नहीं थे।
कुछ मित्रों का कहना था कि हिन्दी में यह किताब महात्मा की छवि ध्वस्त करेगी। राष्ट्रपिता के बारे में ऐसी बातों से कितनों की भावनाएं और आस्थाएं आहत होंगी। एक आदमी जो इस दुनिया में जीवित नहीं है उसके बारे में लिखने का क्या मतलब? मुझे यह तर्क बेमानी लगा। इस देश में गांधीजी की छवि इतनी कमजोर नहीं जो एक मामूली - से धक्के से टूट कर बिखर जाए। ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर यह बहस उस समय भी हुई थी जब खुद महात्मा जिंदा थे। उन्होंने अपने ऊपर लगे एक - एक आरोप का जवाब दिया। ये जवाब बाकायदा लिखत - पढ़त में आज भी मौजूद और सार्वजनिक हैं। यह अलग बात है कि ये जवाब कई दफा बहुत ज्यादा संतोषजनक और तर्कसंगत नहीं दिखते। लेकिन अगर पाठकों को उन जवाबों से संतुष्टि मिल जाती है तो यह गांधीजी और उनके प्रयोग की सफलता कही जा सकती है या फिर गांधीजी के प्रति उनकी कोरी आस्था। इस विषय में अंतिम फैसला मैंने पाठकों पर ही छोड़ दिया है।
इतिहास का पुनर्लेखन या कहें पुनर्पाठ एक खतरे से भरा खेल है। वक्त के साथ घटनाओं के संदर्भ और अर्थ बदल जाते हैं। समय उन ऐतिहासिक घटनाओं को समझने का नजरिया बदल देता है। एड्स के इस खतरनाक युग में ब्रह्मचर्य की अपनी महत्ता और जरूरत है। गांधीजी के युग में ब्रह्मचर्य चाहे इतनी बड़ी समस्या न रही हो लेकिन आज के युग में ब्रह्मचर्य न केवल प्रासंगिक है बल्कि यह प्रश्न अनिवार्य भी होता जा रहा है। अब समय आ गया है जब हम ब्रह्मचर्य पर नए और आधुनिक ढंग से सोचें और उसे पुनर्परिभाषित करें। और इसकी शुरुआत अगर महानायक महात्मा गांधी से हो तो क्या बुरा है।
डीजी तेंदुलकर की महान ग्रंथ शृंखला महात्मा की भूमिका लिखते वक्त जवाहरलाल नेहरू ने कहा था ‘महात्मा गांधी के जीवन की असली कहानी वही लिख सकता है जो उनके जैसा महान हो।लेकिन मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया है जब हम नए नजरिए से अपने महापुरुषों का जीवन चरित्र लिखें। और ऐसा करते वक्त हम किसी शल्य चिकित्सक की तरह तटस्थ हों। तब मन में उस महापुरुष के प्रति न श्रद्धा - भक्ति हो, न घृणा या तिरस्कार का कोई भाव। एक तरह की अनासक्ति हो। यह जोखिम भरा काम है। पर ये जोखिम उठाने होंगे।
महात्मा के ब्रह्मचर्य का प्रयोग उनके जीवन के अंतिम समय तक चलता रहा। 30 जनवरी, 1948 को महात्मा की गोली मार कर हत्या कर दी गई। इससे पहले महात्मा यह कभी नहीं बता पाए कि उनके ब्रह्मचर्य के महान प्रयोग का क्या नतीजा निकला। वह इस अद्भुत प्रयोग के नतीजे दुनिया को नहीं दे पाए। महात्मा नहीं बता सके कि वह युवा लड़कियों के साथ नग्न सो कर पूर्ण ब्रह्मचर्य प्राप्त कर सके अथवा नहीं। उनके प्रयोग का रहस्य उनकी राख के साथ ही गंगा की पवित्र धारा में बह गया। लेकिन इस प्रयोग से जुड़े कई सवाल वह पीछे छोड़ गए। जिनके जवाब खोजने का साहस पुरानी पीढ़ी तो नहीं जुटा सकी, शायद नई पीढ़ी खोज ले।

2 अक्टूबर 2006



मेरी किताब-महात्मा गांधी ब्रह्मचर्य के प्रयोग की भूमिका 

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