दयाशंकर शुक्ल सागर

Friday, September 13, 2013

भूमिका 7 : सरकारी दस्तावेज़ पर आधारित किताब


ऐसे में महात्मा के ब्रह्मचर्य प्रयोग के बारे में प्रामाणिक सामग्री जुटाना एक दुरूह कार्य था। लेकिन महात्मा गांधी संपूर्ण वाङ्मय ने यह काम काफी आसान कर दिया। महात्मा की मौत के आठ साल के बाद 1956 में भारत सरकार ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीनमहात्मा गांधी संपूर्ण वाङ् मयका एक अलग विभाग बनाया था। इस विभाग ने महात्मा गांधी द्वारा लिखित सामग्री एकत्र की। पिछली शृंखला में गांधी वाङ्मय को नब्बे खंडों में बांटा गया था। लेकिन बाद के वर्षों में और सामग्री जिन्हें सात अन्य खंडों में संकलित किया गया। वर्तमान शृंखला में सौ खंड हैं। इन खंडों में 1884 से 1948 तक गांधीजी के सक्रिय सार्वजनिक जीवन के लगभग 64 वर्षों की अवधि में लिखी - कही गई संपूर्ण सामग्री समाहित की गई है।

    अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोग के संबंध में महात्मा ने अपने करीबी मित्रों से खूब पत्र व्यवहार किया। मौन दिवस के दिन वह पुर्जे लिख कर बात करते थे। ब्रिटिश हुकूमत के सरकारी रिकार्ड, आजादी के दौरान अखबारों में छपी खबरें, राजनेताओं के पत्र व्यवहार आदि यह सारे दस्तावेज इस वाङ्मय में दर्ज हैं। यह दस्तावेज प्रामाणिक हैं। जैसा कि खुद वाङ्मय के प्रकाशक ने लिखा कि इस वाङ्मय में महात्मा के भाषणों, साक्षात्कारों और बातचीत की प्रामाणिक नहीं लगने वाली रिपोर्ट शामिल नहीं की गई है।महात्मा हमेशा कहते थे कि उनका जीवनखुली किताबहै और उसमें कुछ भीगोपनीयनहीं। लेकिन गांधीवादियों के लिए ऐसा नहीं था। उन्हें जब पता चला कि महात्मा का संपूर्ण लेखन प्रकाशित हो रहा है तो वह चिंतित हुए। जैसा कि विनोबा भावे ने कहा किमहात्मा गांधी का हर शब्द प्रकाशित करके हम उन्हें क्षति पहुंचा रहे हैं। इस तरह हम उनकी तमाम असंगत और परस्पर विरोधी सामग्री सार्वजनिक कर देंगे।29

    प्यारेलाल ने महात्मा के लिखे पत्र, नोट्स, पुर्जे आदि दस्तावेज बहुत सुरक्षित रखे थे। एक बार इन्हें देखकर खुद महात्मा गांधी ने प्यारेलाल से विनोद में कहा था - ‘इन चीजों को वह परिग्रह का एक रूप मानते हैं। ये संहारक ही हैं।लेकिन जैसा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस वाङ्मय की प्रस्तावना में कहा -  यह निहायत जरूरी है कि उन्होंने जो कुछ लिखा और कहा है, उसका एक पूरा और प्रामाणिक संग्रह तैयार किया जाए।नेहरू ने आगे कहाहमारा कर्तव्य है -  खुद अपने प्रति और आगे आने वाली पीढ़ियों के प्रति।

    संपूर्ण गांधी वाङ् मय को गुजराती में बापू की अक्षर देह कहा गया है। पहली बार वाङ्मय के प्रकाशित होने के बाद कोई बहुत हंगामा नहीं खड़ा हुआ। सच तो यह कि कुछ देसी - विदेशी लेखकों को छोड़ कर किसी ने पूरा वाङ्मय पढ़ा ही नहीं। हिंदुस्तान में ज्यादातर लोगों का गांधीजी और उनके साहित्य के बारे में उतना ही ज्ञान है जितना स्कूली किताबों में सीमित है। यहां तक कि बाद के कांग्रेसियों के पास भी इतनी फुर्सत नहीं थी कि वह गांधीवादी विचारों को पढ़ने की जहमत उठाएं। हालांकि वाङ्मय में छपे महात्मा के पत्रों से भी उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोग की कहानी स्पष्ट नहीं होती। वाङ्मय में ये पत्र बिना किसी स्पष्ट संदर्भ के प्रकाशित किए गए हैं। बिना पृष्ठभूमि के इन पत्रों का मजमून समझ पाना मुश्किल है। मैंने इन पत्रों की बस आपस में कड़ियां जोड़ने का काम किया है।

    इस किताब में गांधीजी उनके सहयोगियों के पत्र, इस प्रसंग से जुड़े तथ्य और घटनाएं उन किताबों से भी ली गई हैं जिन्हें गांधीजी के लोगों उनके प्रकाशकों ने ही छापी हैं। नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद और सस्ता साहित्य मंडल जैसे प्रकाशकों ने गांधीजी के ब्रह्मचर्य प्रयोग में सहभागी रहीं मीरा, प्रेमा, डॉ. सुशीला नैयर, अयतुस्सलाम आदि द्वारा संपादित पुस्तकें छापीं। हालांकि इन किताबों ने इस प्रसंग से जुड़ी कई आपत्तिजनक बातें छापने से परहेज किया। कई नामों की पहचान छुपाने के लिए , बी, सी या सिर्फ...(हाइफन) का प्रयोग किया गया। लेकिन खुर्दबीन लेकर खोजने पर इस प्रयोग से जुड़ी सारी कहानियां और घटनाएं खुली किताब की तरह साफ होती गईं। 

    महात्मा गांधी के जीवन और उनके विचारों के भाष्यकार तथा उनके निजी सचिव प्यारेलाल नैयर ने महात्मा गांधी के जीवन पर लंबा काम किया। उन्होंने महात्मा पर दस खंडों में किताबें लिखीं। महात्मा के जीवन के अंतिम वर्षों पर प्यारेलाल ने चार खंडों मेंमहात्मा गांधी : लास्ट फेजलिखी। इसका हिंदी अनुवाद पहली बार 1965 मेंमहात्मा गांधी : पूर्णाहुतिके नाम से छपा। इस पुस्तक में प्यारेलाल ने महात्मा के ब्रह्मचर्य प्रयोग पर दो अध्याय लिखे। लेकिन इन अध्यायों में प्यारेलाल ने केवल मनु के प्रसंग को महात्मा के ब्रह्मचर्य से जोड़ कर देखा। ब्रह्मचर्य के इस प्रयोग में प्यारेलाल खुद और उनकी बहन डॉ. सुशीला नैयर शामिल थे। लेकिन इसका जिक्र तक प्यारेलाल ने अपने दस खंडों में नहीं किया। इसलिए उनका प्रयास बहुत ईमानदार नहीं कहा जा सकता।

    महात्मा गांधी के ब्रह्मचर्य प्रयोग पर पहली बार निर्मल कुमार बोस ने सार्वजनिक तौर पर उंगली उठाई। उनकी किताबमाई डेज विद गांधी’ 1953 में सामने आई। इस किताब की पांडुलिपि महात्मा की मौत के दो साल बाद ही 1950  में तैयार हो गई थी। बोस चाहते थे कि उनकी यह किताब महात्मा गांधी की अपनी प्रामाणिक संस्था नवजीवन ट्रस्ट छापे। लेकिन नवजीवन प्रकाशन ने इस किताब को छापने से इंकार कर दिया। बोस को यह किताब एक निजी प्रकाशक से छपवानी पड़ी।

    इस किताब में निर्मल कुमार बोस की किताब से उद्धरण लिए गए हैं। इन उद्धरणों पर जरूर कोई उंगली उठा सकता है, क्योंकि वह एक निजी प्रकाशन द्वारा छपी है। हालांकि इस अध्ययन के दौरान मैंने कई जगह निर्मल बोस के लिखे हुए कोक्रास चेककिया और तमाम जगह मैंने उन्हें सही ही पाया। निर्मल कुमार बोस बेहद ईमानदार अध्येता थे। इसमें अब शायद ही किसी को शक हो। मुझे खुशी हुई कि नेशनल बुक ट्रस्ट ने अपनीराष्ट्रीय जीवन चरितशृंखला में बोस पर किताब छाप कर उनका सम्मान किया। बाद में संपूर्ण गांधी वाङ्मय ने भी इस किताब के उद्धरणों को अपने वाङ्मय में शामिल कर लिया।

    संपूर्ण गांधी वाङ्मय के सौ खंड और महात्मा के निकट सान्निध्य में रह चुके भाष्यकारों की इन किताबों से गुजरना अपने आप में एक दिलचस्प और रोमांचक अनुभव था। पत्रों के महासागर में गोते लगाने के अपने खतरे भी थे। कई - कई पत्र तो संदर्भ से इतने कटे हुए थे कि उन्हें समझने के लिए बरसों पीछे जाना पड़ा। पात्रों के बारे में जानने के लिए दूसरे संदर्भ ग्रंथों का सहारा लेना पड़ा। कई किताबें आउट आफ प्रिंट हो चुकी थीं। उन्हें खोजना एक दुर्गम कार्य था। यह सब बहुत समय खर्च करने वाला काम था। इसीलिए इस किताब को पूरा करने में मुझे करीब पांच साल लग गए। इस पुस्तक में संपूर्ण गांधी वाङ्मय के पुराने और एकदम नए संस्करणों से उद्धरण लिए गए हैं।

    पेशे से एक पत्रकार होने के नाते तथ्यों की पवित्रता समझता हूं। इसलिए मैंने बगैर तथ्यों को तोड़े - मरोड़े इसमहान प्रयोगसे जुड़ी सारी घटनाएं क्रमवार रख दी हैं। पूरे किस्से को पठनीय बनाने के लिए दाल में नमक के बराबर कल्पनाशीलता का इस्तेमाल किया है। लेकिन इस कल्पना में भी मैंने सौ फीसदी ईमानदारी बरतने की पूरी कोशिश की है। ये इतिहास के ऐसे पन्ने हैं जो सिर्फ और सिर्फ सच पर आधारित हैं। एक - एक शब्द उन्हीं के हैं जिन्होंने इसे कहा है। इस किताब में मैं किसी तरह की मौलिकता का दावा नहीं करता। मैं कथाकार हूं, लेखक - साहित्यकार। मैंने एक पत्रकार की हैसियत से बस एक सत्य को अपने नजरिए से सामने रखने की कोशिश की है। यह कोई सनसनीखेज रहस्योद्घाटन नहीं है। वैदिक ऋषियों की प्रेरणा से मैंनेसत्य के मुखमंडल पर पड़े स्वर्णावरणको बस हटाने की कोशिश की है। 

    महात्मा के ब्रह्मचर्य प्रयोग को लेकर उनके जीवन काल में ही कई बार सवाल उठे। महात्मा ने उसका समय - समय पर जवाब भी दिया। महात्मा का पक्ष रखने के लिए इस किताब में उन उद्धरणों को बगैर संपादित किए दिया गया है ताकि महात्मा को सफाई का पूरा मौका मिले। महात्मा के निजी जीवन में चल रहे इस महान प्रयोग का असर उनके राजनीतिक जीवन पर भी पड़ा। आजादी की लड़ाई के संवेदनशील मोड़ों पर महात्मा दूसरे गैर जरूरी कामों में उलझे रहे। भगत सिंह की फांसी का प्रकरण हो या नोआखली में सांप्रदायिक दंगे, अपने प्रयोगों के चलते महात्मा एक अजीब से अंतर्द्वंद्व में जी रहे थे। उन्हें कई बार शंका हुई कि कहीं उनके व्रत में कोई कमी तो नहीं रह गई। लेकिन हर बार वह इस विचार को नजरअंदाज कर आगे बढ़ जाते।

    महात्मा स्वभाव से जिद्दी थे। उनके करीब - करीब सभी मित्रों ने उन्हें उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोग के बाबत चेतावनी दी। सबने कहा कि महात्मा आप गलत रास्ते पर जा रहे हैं। लेकिन महात्मा कुछ सुनने को तैयार नहीं थे।  वे कहते - ‘मैं खुद भी जानता हूं, गलतियां करके, उनको स्वीकार करके और उन्हें सुधार कर ही मैं आगे बढ़ सकता हूं। जाने क्यों किसी के टोकने या किसी की चेतावनी से मैं उन्नति कर ही नहीं सकता। ठोकर लगने और दर्द होने पर ही मैं सीख पाता हूं। जब हम सब बालक थे, तब तो इसी तरह सीखते थे। अपने 76वें साल में भी मेरी हालत बालक के समान ही है।

    इसमें संदेह नहीं कि बीसवीं सदी के हिंदुस्तान में पहली बार गांधीजी ने ब्रह्मचर्य पर ईमानदार बहस शुरू की थी। उनके ब्रह्मचर्य का फार्मूला भले ही अटपटा हो लेकिन वह कम से कम ब्रह्मचर्य पर एक बहस का मौका देता था। गांधीजी अपने युग केबोल्डआदमी थे। वह मानते थे किब्रह्मचर्य के विषय में पहले भी प्रयोग किए गए और आज भी किए जा रहे हैं, और ऐसा होना ही चाहिए।... प्रगति करने के लिए हमें अकसर सामान्य प्रयोगों से आगे जाना पड़ता है। वह कहते - ‘मामूली माचिस का आविष्कार चकमक पत्थर के सामान्य प्रयोग की सीमाओं को चुनौती देने से संभव हुआ और बिजली के आविष्कार ने तो पूर्वकल्पित मान्यताओं को ही खत्म कर दिया। जो बात भौतिक वस्तुओं के बारे में सच है वह आध्यात्मिक वस्तुओं के बारे में कैसे गलत हो सकती है।... आत्मसंयम की दिशा में हम कहां तक आगे बढ़ सकते हैं, इसके प्रयोग करने का हमारा अधिकार और कर्तव्य है।लेकिन ब्रह्मचर्य पर प्रयोग करते हुए यह संत - वैज्ञानिक इतना आगे निकल आया कि फिर उनके लिए वापस लौट पाना कठिन हो गया।

संदर्भ

     संभोग नहीं संयम

  1. संपूर्ण गांधी वाङ्मय, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली। खंड 23 : 17 मार्च, 1922, पेज 109 (संस्करण 1967)

  2. खंड 62 : 28 मार्च, 1936, पेज 312, (संस्करण 1975) हरिजन -  28 मार्च, 1936

  3. संयम और संतति - नियमन, गांधीजी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद 1962, पेज 107 यंग इंडिया, 27 - 9 - 1928

  4. गांधी साहित्य - 9, आत्मसंयम, सस्ता साहित्य मंडल - प्रकाशन 1960, पेज 88

  5. पुस्तकआत्मसंयम बनाम विषयासक्तिकी प्रस्तावना से, खंड 33, पेज 200, (संस्करण 1969) यंग इंडिया 24 - 3 - 1927

     कस्तूर का कसूर

  6. सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, एमके गांधी, नवजीवन मंदिर प्रकाशन अहमदाबाद, जनवरी 2000, पेज 239

  7. खंड 9 : 9 नवम्बर,1908,पेज 109 (संस्करण 1963) ‘बापूना बाने पत्रो’, इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस, फीनिक्स, 1948

  8. खंड 9 : 9 नवम्बर,1908,पेज 109 (संस्करण 1963) ‘बापूना बाने पत्रो’, इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस, फीनिक्स, 1948

  9. खंड 14 : 12 अप्रैल 1914, पेज 150 (संस्करण 2001)

10. खंड 16 : 16 जनवरी 1920, पेज 505 - 506 (संस्करण 1965)

11. खंड 16 : 25 जनवरी 1920, पेज 527 (संस्करण 1965)

12. महात्मा गांधी : जीवन और दर्शन, रोमां रोला साहित्य अकादमी, लोकभारती प्रकाशन, पेज 126

13. गांधी की कहानी, लुई फिशर, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, पेज 68

14. हमारी बा, वनमाला पारीख, सुशीला नैयर, नवजीवन मंदिर प्रकाशन, अहमदाबाद 1959, पेज 209

     अतृप्त वासनाएँ और संघर्ष

15. खंड 73, 5 मई, 1938, पेज 161 (संस्करण 2001)

16. खंड 94, 18 मार्च, 1947 पेज 152 (संस्करण 2001)

17. खंड 37, 10 सितम्बर, 1928, पेज 271 (संस्करण 1970)

18. खंड 73, 23 जुलाई, 1938, पेज 350 - 351, (संस्करण 2001), हरिजन, 23 - 7 - 1938

19. खंड 43, 10 सितम्बर, 1928 पेज 271 (संस्करण 1970)

20. खंड 10 : 14 नवम्बर, 1909 पेज 275 (संस्करण 2001)

21. खंड 37, 10 सितम्बर, 1928 पेज 271 (संस्करण 1970)

22. खंड 86 : 6 मार्च, 1945, पेज 8 (संस्करण 2001)

23. खंड 86 : 6 मार्च, 1945, पेज 7 (संस्करण 2001)

24. खंड 86 : 6 मार्च, 1945, पेज 10 (संस्करण 2001)

     मगर सब चुप रहे

25. खंड 84, 5 सितम्बर या उसके पश्चात् 1944, पेज 396 (संस्करण 2001)

26. महात्मा गांधी एंड हिस अपॉसल्स, इंडियन बुक कंपनी, 1976, वेद मेहता, पेज 48

27. खंड 94 : 18 मार्च, 1947 पेज 152 (संस्करण 2001)

     दस्तावेजों में छुपे रहस्य

28. जॉर्ज ऑरवेल, कलक्टेड एस्सेज :जर्नलिस्म एंड लैटर्स आफ जॉर्ज ऑरवेल, संस्करण -  लंदन 1978, पेज 523

29. महात्मा गांधी एंड हिस अपॉसल्स, वेद मेहता, पेज 37

 

 

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